"तेरे शहर में दो दिन"(एक अधूरी सी मुलाक़ात — एक मुकम्मल सी कविता)

🎙️ "तेरे शहर में दो दिन"
(एक अधूरी सी मुलाक़ात — एक मुकम्मल सी कविता)
मैं हल्द्वानी से चला, सिर्फ तुझसे मिलने,
ना कोई शिकायत, ना सवाल — बस एक उम्मीद थी मन में।
बुकिंग तुने की थी, पर किराया मेरा गया,
फिर भी कुछ नहीं लगा — क्योंकि सफर तुझ तक आया।
नोएडा सेक्टर 137 तक रैपिडो से पहुंचा मैं चुपचाप,
भीड़ भरे उस शहर में ढूंढ रहा था बस तेरा साथ।
कमरा मिला — नंबर 19, छोटी सी एक दीवारों की दुनिया,
पर उस कमरे में, हर सांस तेरी याद में बसी थी गुमसुम सी।
तू आई, कुछ देर साथ बैठी — फिर चुपचाप चली गई,
मैं वहीं रह गया... जैसे कोई कहानी अधूरी रह गई।
रात को खाना खाया अकेले, फिर वहीं थककर सो गया,
सोचा तू फिर सुबह आएगी, मगर कमरा फिर से खामोश हो गया।
12 बजे तक सिर्फ दीवारों से बातें कीं,
घुटन सी होने लगी — जैसे वक़्त भी रुक गया हो कहीं।
दोपहर में आई, साथ खाना खाया,
फिर ज़ूडियो से थोड़ा बहुत खरीदा — मुस्कराहट थोड़ी आई, मगर चेहरा फिर भी सादा सा पाया।
शाम को मीटिंग, रात को बीयर और वाइन,
मैंने सोचा, शायद आज की रात होगी थोड़ी अपनी सी, थोड़ी fine।😔
कमरे में लौटे — पल थोड़े खास लगे,
मैंने कहा — "रुक जा न यार… आज की रात तो बस साथ लगे।"
पर तू फिर चल दी — जैसे ये लम्हा भी तुझसे भारी हो गया,
और मैं… एक बार फिर उसी कमरे में अकेला हो गया।😒

अगले दिन तू एक बजे लौटी,
बैग उठाया, कुछ भी कहे बिना बस चल दीये 

4 नंबर गेट पे एक डोसा साथ खाया,
पर उस वक्त तेरा चेहरा भी खामोश सा नज़र आया।
तू रूठी थी या थकी हुई — ये मैं आज तक नहीं जान पाया,
शायद वही लम्हा था जिसने सबकुछ छीन लिया
"मैं आया था तेरे लिए…
पर लगता है, लौटते वक़्त मैं खुद को ही कहीं छोड़ आया..." 💔
"तेरे शहर से मैं खाली हाथ नहीं गया…
तेरी खामोशी भी साथ ले गया हूं।"

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