बचपन में जब

बचपन में जब भी पेंसिल टूटती थी, पापा तुरंत नई ला देते थे…
जब भी गिर जाता था, पापा कहते – "कुछ नहीं हुआ बेटा, उठो और फिर से कोशिश करो।"
तब लगता था कि पापा के पास हर सवाल का जवाब है, हर दर्द का इलाज है।

धीरे-धीरे बड़ा हुआ, तो समझ आया –
पापा खुद टूटी हुई पेंसिल से लिखते थे,
खुद गिरकर भी कभी शिकायत नहीं करते थे।
उन्होंने अपनी इच्छाओं को, अपने सपनों को दफ़न कर दिया,
सिर्फ इसलिए ताकि मेरे सपनों को पंख मिल सकें। 🥺❤️

पापा का गुस्सा भी अजीब था…
वो गुस्सा नहीं था, बल्कि चिंता थी…
वो चुप्पी नहीं थी, बल्कि जिम्मेदारियों का बोझ थी…
वो डांट नहीं थी, बल्कि प्यार का दूसरा नाम थी।

आज जब मैं थककर देर रात घर लौटता हूँ,
तो याद आता है – पापा भी ऐसे ही थककर आते थे,
पर उन्होंने कभी ये थकान मुझे महसूस नहीं होने दी।
उन्होंने अपनी पीठ पर ज़िंदगी का बोझ उठाया,
ताकि मैं आराम से मुस्कुरा सकूँ।

👉 सच कहूँ तो – माँ दिल है, और पापा रीढ़ की हड्डी।
दिल की धड़कन दिखती है…
पर रीढ़ की हड्डी छुपी रहती है –
फिर भी पूरी ज़िंदगी संभालकर रखती है।

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